सत्यार्थ प्रकाश का आवश्यक उपदेश
"उन्हीं के सन्तान विद्वान सभ्य और सुशिक्षित होते हैं , जो पढ़ाने में सन्तानों का लाड़न कभी नहीं करते, किन्तु ताड़ना ही करते रहते हैं ।
इसमें व्याकरण महाभाष्य का प्रमाण है-
सामृतै: पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितै: ।
लालनाश्रयिणों दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणा: ॥
- [महाभाष्य ८।१।८ ]
अर्थ- जो माता, पिता और आचार्य, सन्तान और शिष्यों का ताड़न करते हैं वे जानों अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं। और जो सन्तानों वा शिष्यों का लाड़न करते हैं वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिलाके नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं क्योंकि लाड़न से सन्तान और शिष्य दोषयुक्त तथा ताड़ना से गुणयुक्त होते हैं और सन्तान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और लाड़न से अप्रसन्न सदा रहा करें , परन्तु माता-पिता तथा अध्यापक लोग ईर्ष्या , द्वेष से ताड़न न करें , किन्तु ऊपर से भयप्रदान और भीतर से कृपादृष्टि रक्खें। "
=सत्यार्थ प्रकाश, द्वितीय समुल्लास।
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